प्रकृति , बालक और शिक्षा

       


  

           शिक्षा प्राप्त करने की एक विशेष उम्र है और वह है बाल्यावस्था। बाल्यावस्था ऐसा समय होता है जब बच्चों के शरीर तथा मन का पूर्ण रूप से पालन पोषण करने के लिए प्रकृति के साथ उनका खुला मेल होता है । इसमें किसी प्रकार की रोक-टोक ना हो बाल्यावस्था ढांपने, बंद करने की आयु नहीं है उस समय सभ्यता की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती परंतु हम जब देखते हैं कि बाल अवस्था में ही बच्चों के साथ सभ्यता का युद्ध छिड़ जाता है तो हमें बड़ा दुख होता है बच्चा वस्त्र उतार कर फेंकना चाहता है और उसे हम लादना चाहते हैं कम से कम 7 वर्ष की आयु तक बच्चों को ज्यादा सभ्यता तथा शासन से बिल्कुल बाहर रखना चाहिए इस उम्र तक बच्चों को न तो ज्यादा सजने धजने की आवश्यकता है और ना ही संकोच की या अनुशासन की इस समय तक जंगली पन की शिक्षा ही सबसे आवश्यक शिक्षा है और यह सब बच्चों को मिलनी ही चाहिए प्रकृति को बिना रोक-टोक इस प्रकार की शिक्षा देने दो बच्चों को इस प्रभाव में रहने दो और प्रकृति का प्रभाव रखने के लिए किसी प्रकार का हस्तक्षेप ना करो ।

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     यदि इस समय भी बच्चे धरती की गोद में लेट कर अपने शरीर को धूल मिट्टी से लथपथ ना करेंगे तो उनको फिर यह स्वर्ण अवसर और  कब प्राप्त हो सकेगा यदि बच्चे इस आयु में भी वृक्षों पर चढ़कर फल न तोड़ सकेंगे तो फिर सभ्यता के संकोच में उलझ कर वृक्षों पौधों फलों फूलों से जीवन भर कभी भी मेल मिलाप का संबंध स्थापित न कर सकेंगे इस समय वायु प्रकाश मैदान वृक्ष पत्ते फूल आदि की और उसके मन और शरीर का जो प्राकृतिक खींचाव अथवा लगाव होता है चारों ओर से उन्हें जो निमंत्रण आते हैं उनके मध्य यदि वस्त्रों द्वारा अथवा विद्यालयीन शैक्षिक अनुशासन (बंद कमरे की बंधनकारी शिक्षा )की बाधाएं डाल दी जाए तो बच्चों की शक्ति तथा प्रवास रुक कर सड़ने लगता है।

   चाहे कुछ भी क्यों ना हो परंतु इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि प्रकृति जो कर सकती है जो शिक्षा दे सकती है वह हम बंद कमरे के विद्यालयों में नहीं कर सकते ।

     प्रकृति शिक्षा से केवल बच्चों को ही लाभ नहीं होता है अपितु हमें भी लाभ होता है हम अपने ही हाथों से सब कुछ ढांप  लेना चाहते हैं और धीरे-धीरे अपने स्वभाव को इतना बिगाड़ लेते हैं कि फिर प्राकृतिक वस्तुओं की ओर किसी प्रकार भी साधारण दृष्टि से नहीं देख सकते ।

   आजकल विद्या अर्जन के संबंध में जो उलटी गंगा बह रही है उसके परिणाम स्वरूप हमें बाल्यावस्था से ही पुस्तकें रटनी पड़ती हैं परंतु वास्तव में पुस्तकों द्वारा ज्ञान प्राप्त करना हमारे मन का प्राकृतिक धर्म नहीं है विशेष करके बाल्यावस्था में तो बिल्कुल ही नहीं।

    वस्तुओं को सामने देखकर सुनकर उसे हिला डूलाकर अपनी आंखों से देख तथा जांच करके ही विस्तृत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है दूसरों के आविष्कृत अथवा प्रमाणित ज्ञान को  यदि हमारे बच्चे अध्यापकों के मुख से सुनते हैं या पुस्तकों में पढ़ते हैं तो उनका मन इन बातों को सरलता से ग्रहण नहीं कर पाता ।

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     हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार हैं कि मनुष्य के ज्ञान उसकी जानकारी तथा उसके विचारों को वर्तमान तथा भविष्य में आने वाली नस्लों के लिए एकत्र कर रखने के लिए पुस्तक जैसी उत्तम कोई वस्तु नहीं ऐसी सुगमता और किसी वस्तु में नहीं है पुस्तकों द्वारा ही आज हम मनुष्य के सहस्त्र वर्ष पुराने ज्ञान और विचारों को सरलता से जान सकते हैं परंतु यदि हम सफलता अथवा सुगमता के लिए अपने मन की प्राकृतिक शक्ति को भी बिल्कुल दबाकर बंद कर दें तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हमारी बुद्धि कुंद हो जाएगी और हम नौकर चाकर धन्य धान्य आदि वस्तुओं पर आश्रित लंबित रहते हुए इनके बिना हिले डुले बगैर "बाबू " बनते व बनाते जाएंगे ।  अर्थात स्वयं का उद्यम करने का साहस हममें न होकर हमारे बच्चों में नोकरी चाकरी या गुलामी की बलवती भावना विकसित होती रहेगी ।

ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोर के लेख प्रकृति और बालक से साभार 

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